1 है। मैं अगर वो हूँ जो होना चाहिए
मैं ही मैं हूँ फिर मुझे क्या चाहिए
ग़रक़-ए-ख़ुम होना मयस्सर हो तो बस
चाहिए साग़र न मीना चाहिए
मुनहसिर मरने पे है फ़तह-ओ-शिकस्त
खेल मर्दाना खेला जाना चाहिए
बे-तिल्लुफ़ फिर तो खेवा पार है
मौजजान क़तरा में दरिया चाहिए
शिक ग़ैरों पर न कर तेग़ल-ओ-तबर
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आपको अपने से मुबर्रा को चाहिए
हो दम-ए-अर्ज़-ए-तजल्ली पाश
सीना मिस्ल-ए-तूर-ए-सीना चाहिए
हुस्न की क्या इब्तिदा क्या इंसा
शेफ़्ता भी बे-सर-ओ-पा चाहिए
पारसा बन गर नहीं रिंदों में बार
कुछ तो बेकारी में करना चाहिए
कुफ़्र में साक़ी पे ख़िस्सत का गुमाँ है
तिश्ना सरगम-ए-तक़ाज़ा चाहिए।
२। आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया
नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया
आप रोज़-ओ-शब जो दस्त-ब-ए-अदू फिरे
मैं संस्थापक-ए-गर्दिश-ए-अय्यम हो गया
मेरा निशानाँ मिटा तो हटाओ ये रस्क है
विर्द-ए-ज़बान-ए-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया
दिल चाक चाक नग़्मा-ए-निक़ूस ने किया
सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया
अब और भाषिकिए कोई जौलाँ-ते-ए-जुनूँ
सहरा बी-क़द्र-ए-वुसअत-यक-गम हो गया
दिल पेंच से न तुर्रा-ए-सूर-ख़म के रुक गए
बाल-रवी से मुर्ग़ ता-ए-दाम हो गए
और अपने हक़ में ताम-ए-तग़ाफ़ुल ग़ज़ब हुआ
ग़ैरों से मुल्तफ़ित बुत-ए-ख़ुद-काम हो गया
तासीर-ए-जज़्बा क्या हो कि दिल इज़्तिराब में
तस्कीं-पज़ीर बोसा-ब-पैग़ाम हो गया
क्या अब भी मुझे पे फ़र्ज़ नहीं दोस्ती-ए-कुफ़्र
वो ज़िद से मेरे दुश्मन-ए-इस्लाम हो गए
अल्लाह-रे बोसा-ए-लब-ए-मय-गूँ की आरज़ू
मैं ख़ाक हो के डरद-ए-तह-ए-जाम हो गया हूँ
अब तक भी नज़र तरफ़-ए-बाम-ए-माह-वश है
मैं गरचे आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम हो गया
अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है
क्यूँ मुझे को ज़ौक़-ए-लजज़त-ए-नाम हो गया।
३। ऐसा क्या हो गया कि तुझे देखती नहीं
जी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं।
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