1 है। यूँ न मिल मुझसे सेफ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा जैसे हो
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
मुझे भूल जाओ जैसे हो
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न मिल हम से ख़ुदा हो जैसे
मौत भी आई तो इस नासाज़ के साथ
मुझे पे एहसान किया जैसे हो
ऐसे अंजान बन बैठे हैं
आप को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
ने फिर से याद किया जैसे हो
जीवित जीवन बीत रहा है ‘दानिश’
एक बे-जुर्म सज़ा हो जैसे।
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२। न सियो होट न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लहत का ये तक़ाज़ा है भुला दो हम को
जुर्म-ए-सुकरात से हट कर न सज़ा दो हम को
ज़हर रक्खा है तो ये आब-ए-बक़ा दो हम को
बस्तियाँ आग में बह जाना
हम अगर सोए हुए हैं तो जगा दो हम को
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
हाँ अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो हटा दो हम को
ख़िज़्र मशहूर हो इल्यास बने फिरते हो
कब से हम गुम हैं हमारा तो पता दो हम को
ज़ीस्त इस सहर-ओ-शाम से बेज़ार ओ ज़ुबो है
लाला-ओ-गुल की तरह रंग-ए-क़बा दो हम को
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर जुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा दो हम को
जुरअत-ए-लम्स भी इम्कन-ए-तलब में है
ये न हो और तह हग कर दो हम को
क्यूँ न उस शब से नए दौर का आग़ाज़ करें
बज़्म-ए-ख़ूबाँ से कोई नग़्मा सुना दो हम को
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ सहरा हो गया है उस शहर में
बैठ जाएँ जहाँ जहाँ चाहो बिठा दो हम को
हम चंदनन्द हैं नोन्ड्स साहिल तो नहीं
शौक़ से शहर-पनाहों में लगा दो हम को
भीड़ बाज़ार-ए-समाअत में नग़्मों की बहुत है
जिस से आप सामने अभरो वो सदा दो हम को
कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
तुम ये इंसाफ़ से सोचो तो दुआ दो हम को
आज माहौल को आरफॉर्म-ए-जाँ से है गुरेज़
कोई ‘दानिश’ की ग़ज़ल ला के सुना दो हम को।
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