8 साल की उम्र में निर्मला पुतुल ने खेतों में काम करना शुरू कर दिया था। निर्मला को अपर कास्ट के लोगों का काफी विरोध झेलना पड़ा जब उनके लेखन और काम के माध्यम से वे आदिवासियों के लिए आवाज बुलंद की …
तो आइए आज इस निडर कवियित्री की कविता के साथ जियाउन ।।
कविता का शीर्षक है- बाबा! मुझे उतनी दूर मत बयना …
बाबा!
मुझे उतनी दूर मत बन्ना
जहाँ मुझे मिलने जा रहे ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम से
मत बाना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हैं
जंगल नदी पहाड़ जहाँ नहीं हैं
वहाँ मत कर आओ मेरा लगान
वहाँ तो कताई नहीं
कहीं की सड़कों पर
मान से बहुत अधिक उछाल दौड़ती हो मोटर-और
ऊँचे-ऊँचे घर
और दुकानें बड़ी-बड़ी हैं
उस घर से मत जोड़ो मेरा संबंध है
उस घर से मत जोड़ो मेरा संबंध है
किस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होता है ना हो सुबह
और शाम को पिछवाडे से
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे।
ऐसी वर का चुनाव न करें
जो पोचै[1] और हंडिया में
डूबा रहता है अक्सर
काहिल निकम्मा हो
उपयोग हो मेले से लड़कियाँ ले जाने में उड़ा देंगी
ऐसी वर को मेरी ख़ता नहीं चुननी चाहिए
जो बात-बात में बात लाठी-डंडे की
नहीं थारी लोटा तो नहीं
बाद में जब चाहूँगी लूंगी को बदल देती है
अच्छा-ख़राब होने पर
जो बात-बात में
बात सही लाठी-डंडे की
गेंदले तीर-धनुष कुल्हड़ी
जब चाहे बंगाल, आसमां, कश्मीर चला जाए
ऐसी वर मुझे नहीं चाहिए
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिनके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने कभी किसी का साथ नहीं दिया
किसी का बोझ नहीं उठाया
और तो और
जो हाथ से लिखता है वह “हा” से नहीं जानता
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
जो बात-बात में बात लाठी-डंडे की
नहीं थारी लोटा तो नहीं
बाद में जब चाहूँगी लूंगी को बदल देती है
अच्छा-ख़राब होने पर
जो बात-बात में
बात सही लाठी-डंडे की
गेंदले तीर-धनुष कुल्हड़ी
जब चाहे बंगाल, आसमां, कश्मीर चला जाए
ऐसी वर मुझे नहीं चाहिए
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिनके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने कभी किसी का साथ नहीं दिया
किसी का बोझ नहीं उठाया
और तो और
जो हाथ से लिखता है वह “हा” से नहीं जानता
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
मेला हाट जाना-जाना
मेला हाट जाना-जाना
मिल संभव कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी खाईया के बयाने की ख़बर
दे संभव जो कोई उधर से गुजर रहा है
ऐसी जगह में बवाना मुझे
वह देश बंकना
जहाँ कहीं भी ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहता है
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हैं जहाँ
वहीं बोना मुझे!
उसी के संग बान्ना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक[4] पक्षी की तरह
होने वाले हररमैन
घर-बाहर के हिस्सों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख से भरी रही
वर चुन ऐसा
वर चुन ऐसा
जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मादर बजाने में पारंत हो जाओ
बसंत के दिनों में ला संभव जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल
इसके अलावा नहीं
मेरा भूखे रहना
वही से बन्ना मुझे।
काव्यानुवाद: कविताकोश
दोस्तो, निस्संदेह, कविता के साथ पलों का सफर खत्म करने को जी नहीं चाहती लेकिन आज एक बार फिर आपको विदा, इस वादे के साथ कि जल्द ही मैं, पूजा प्रसाद, आपके लिए साथ आऊंगी फिर एक कविता .. तब तक के लिए नमस्कार ।
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